मंगलवार, 24 मई 2011

दीवारें ही दीवारें

गूगल खोज से साभार
सदियों सा फासला कुछ पलों में यूं मिटा
न तुम मुझसे जुदा थे और न मैं तुमसे।
कई बार दरकी थी विश्वास की दीवारें
जिसे विश्वास से ही संभाला
कभी तुमने तो कभी मैंने।
मुफलिसी के वो दिन भी क्या खूब थे
जब प्यार की रोटियों से पेट भर लिया करते थे
कभी तुम तो कभी मैं।
अब न तो वो मुफलिसी का बहाना है
न वह विश्वास ही
हैं केवल दीवारें ही दीवारें
जिसे न तुम पार कर सकते हो न मैं।

शुक्रवार, 20 मई 2011

गुनगुनी सी धूप

सर्दी पहली धूप
गुदगुदाए, बिसराए
दूर देश कहीं ले जाए।
बर्फ की चादर फैली
लोगों की हंसी ठिठोली
चाय का गर्म प्याला
ले जाए दूर कहीं, दूर कहीं।
गर्म कपड़ों की राहत
अंगीठी की गर्माहट
ठिठुरते लोगों का जमघट
ले जाए दूर कहीं, दूर कहीं।
मुंह से निकलता धुंआ,
सर्दी से ठिठुरते लोगों का कारवां
गुनगुनी धूप पाने को बेकल मन,
ले जाए दूर कहीं-दूर कहीं

हमें पाना है

नन्हें कदम बढ़ाना है
जीवन में हमें कुछ पाना है,
भविष्य हैं देश का कहते हैं सभी
उम्मीदों की उस लौ को जलाना है
आगे बढ़ते जाना है।
बस्ता भारी कंधों पर जिम्मेदारी
आंखों में सपने
मंजिल है कदमों पर अपने
सही रास्ते पर चलते जाना है।
मां का लाडला,
पिता का प्यारा
सारे जग पर राज हमारा
ऐसी अलख जगाएंगे
धरती पर सितारे लाएंगे
हम आगे बढ़ते जाएंगे।

वृक्ष


जीवन का आधार दिया है
सुयोग्य तुम्हें विकास दिया है
हरियाली ही जीवन है यह मंत्रोच्चार दिया है।
कांटों का दुःख सहकर फूल तुम पर बरसाए हैं
समान दृष्टि डाली सब पर
और समानता का नया आयाम दिया है।
पर तुमने हमसे सब छीना है,
चोट पर चोट करते रहे सदियों से तुम
क्रूरता की सीमा भी लांघी तुमने
दर्द की विभीषिका को मौन रहकर
स्वीकार हमने किया है।
अब वक्त हमारा आया है
जीवन का अधिकार हम भी छीनेंगे,
हद की सीमाएं लांधी तुमने
तो हम भी हर सीमाएं तोड़ेंगे।

चाचा नेहरू का सपना

गुलाबों से चेहरे पर मुस्कान
देश के बच्चे बनें महान
किताबों के बोझ तले
दब न जाए देश का अरमान
देश के बच्चे बनें महान।
संकल्प उन्हें उठाना है
राष्ट्र का स्वरूप बनाना है
अनीति, अनाचार पर लगाएं विराम
देश के बच्चे बनें महान।
खेल-खिलौने
मिठाई के दोने
सबको मिले एक समान
देश के बच्चे बनें महान।
आने वाला कल उनका,
आज पर भी है हक उनका,
दुनिया होगी जिनकी तमाम
देश के बच्चे बनें महान।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

कविताएं कुछ गढ़ा करो



पतिदेव फरमाए
प्रिय, कविताएं कुछ गढ़ा करो
यूं ही थोड़ा अभ्‍यास, थोड़ी कमाई होगी
और लोग पढेंगे जागृत होंगे,
मैंने भी अपना हाल सुनाया,
शब्‍दों का मायाजाल बनाया,
कहा, यूं ही लोग महंगाई की मार से बेहाल हैं,
कविता का बोझ कैसे सह पाएंगे
क्‍यों उनकी मुश्किल और बढाऊं
ऐसे में सुंदर, सस्‍ती और टिकाऊ कविता
कहां से लाऊं।।

सोमवार, 14 मार्च 2011

शहर


चारों ओर फैला घोर उजाला
सिमट जाता, जिससे गहन अंधियारा।

सारा परिवेश कृत्रिम नजर आता है,
जिसमें व्यक्ति स्वयं मशीन बन जाता है।

काली सड़कों पर दौड़ती अगिनत मोटरें,
जैसे मानवता पर पड़ गई हों सिलवटें।

दिशाहीन होकर दौड़ते हैं, अर्थहीन प्रतियोगिताओं में,
प्रथम और द्वितीय भी मान लेते हैं, स्वयं को दौड़ में।

मुझे डर है ऐसे अजनबी माहौल से,
सिहर उठता है रोम, भविष्य के विनाश से।

नहीं चाहिए ऐसा विकास,
जो भूला दे हमारा मनोरम इतिहास।

दुःख की आत्मकथा

मन की पीड़ा प्रकट करना,
हे! मानव ये ठीक नहीं,
अपने दुःखों की खुली किताब रखना,
हे! मानव ये ठीक नहीं।

इसकी कहानी बड़ी पुरानी
जिसकी परिभाषा न दे पाये ज्ञानी,
कोई कहता उमड़ता बादल
कोई कहता लहरें तूफानी।

समिधा

पुलकित हो उठा है, मन इसके आगमन से
किलकारियां गूंज उठी हैं, हर दिशाओं में।

पदार्पण हुआ है, हृदय बगिया में कली का
व्याकुल है मन, नन्हे स्पर्श को ममता का।

भावभंगिमा बदल गई है मुखमंडल की
अधरों पर मुस्कान प्रस्फुटित हुई सबों की।

बदरंग थी जीवन की तस्वीर कल तक
भर दिया रंग जिसमें तुमने आकर।

सदा रहे तुम्हारा जीवन बुलंदियों पर
रोड़े न अटकाए कोई राहों पर।

बिखेरो खुशियां रोशनी बनकर
सुगंधित रहो सदा समिधा बनकर।

बचपन तुम्हारे साथ

बचपन की तुम वो मिठास,
जिसे चखकर परितृप्त है मन आज,
साथ तुम्हारे चलने को
आतुर है, पवन की रफ्तार।

पग तुम्हारे चलते रहें, ऊंची चोटियों के भी पार,
साथ साथ गूंजती रहे खुशियों की मल्हार
नभी से भी ऊपर रहें,
सोपान विकास की और छू जाएं कदम मंजिल को।

वक्त

* ‘वक्त’ से आगे निकलने की यूं
जल्दबाजी न करो, ऐसा न हो
जिन्दगी मौत से बदतर हो जाए।।
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* ‘वक्त’ के चौराहे पर दिए कितने ही इम्तिहान,
इन्हीं इम्तिहानों ने आज जीना सिखा दिया।।
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* ‘वक्त’ को इतना धोखा दिया,
कि जिन्दगी धोखे में ही गुजर गई।।
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* ‘वक्त’ ने इशारों से बहुत समझाया,
पर मैं ही मूर्ख था एक भी इशारा समझ न पाया।
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* ‘वक्त’ की मार ने पहलवां यूं बनाया,
कि हर तकलीफ अब आसां हो गई।।
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* ‘वक्त’ की तपिश ने सोने को भी गलाया,
हम तो बड़े मामूली हैं जाने हश्र क्या होगा।।
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* ‘वक्त’ होगा कभी तो मेहरबां मुझपर
यह सोचकर बस जिए जा रहे हैं।।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

मैं मनुष्य हूँ

पूछो नहीं नाम मेरा
मैं बड़ा अभागा हूं
मैं लक्ष्यहीन पंथहीन
राहों की छाया हूं

मैंने कितने अनर्थ किए
कार्य कितने व्यर्थ किए

स्वार्थ अपने पूर्ण करने को
औरों के हक छीनने को
मनुष्य जन्म लेकर मैं आया हूं
विकट संकट की प्रतिछाया हूं

निद्रा मेरी अब टूटी है
जब जीर्ण शीर्ण संस्कृति बची है

चारों ओर अशांति मची है
देश अब इन भूतों के लिए खंडहर शेष
यह देश का अब चिन्ह विशेष
कुरूप अब एक काया हूं
क्योंकि मैं मनुष्य जन्म लेकर आया हूं।

ज्वलंत विषय

ज्वलंत विषय ढूंढ़ा ताकि उस पर कुछ लिखूं
पाया हर चीज़ ज्वलनशील है

कभी देश तो कभी जनता जलती है
कभी शांति तो कभी नैतिकता धधकती है

सर पर टोपी हाथ में सीधी छड़ी वाला
वह युग बीत गया
तन पर सूट, हाथ में बंदूक लिए
शासक वह युग लूट गया

पाठकों ने कहा
यह तो घिसा पिटा विषय है
इस पर न लिखने को कुछ शेष है

लेकिन उन्हें न यह पता
यह तो अवशेष है
मूल बातें हैं लापता

भव्य समारोह की तैयारी थी
गोरी काली कन्याओं की सभा लगाई थी
आपस में गिट पिट कर
सुंदरी का खिताब किसी ने जीत लिया

सारी जनता बौखलाई सी
उमड़ी भीड़ देने बधाई
क्या पता उसे यह ताज किसलिए दिया गया
संस्कृति अपनी मर चुकी
उसी के शोक पर मनाई जा रही खुशी।

कहीं देश फैशन परस्त, तो कहीं पस्त है
कहीं नेताओं की तानाशाही
तो कहीं जनता की किस्मत अस्त है
इसी उलझन में फंसा
ज्वलंत विषय न ढूंढ़ सका।

बस यूँ ही कभी

मेरी सुबह होती है यूं ही
आंगन बुहारते गोबर से लीपते
रोटी-भात बनाते
कपड़े धोते
गाय को चारा खिलाते
बच्चे को दूध पिलाते
हर दिन दुलत्ती खाते
यूं ही होती है सुबह।

कल जब पड़ोस में देखा
सुबह भी हंसती है उसके आंगन में
नहीं बुहारना-लीपना पड़ता उठकर भिनसरे
नहीं पड़ती उसको दुलत्ती कभी
उसकी कोठी में होती है सुबह यूं ही
मेरी सुबह भी बीत ही जाती है रोज यूं ही।

मेरी बिटिया रानी

मेरी बिटिया रानी गढ़ूंगा तेरे लिए अलग कहानी
सफलता, खुशियां, ममता तेरी झोली में डालूंगा,
पिता हूं तेरे सारे दु:ख हरूंगा।
पकड़कर ऊंगली जब सीखा तूने चलना,
मन पुलकित और हर्षित हुआ ,
तुझे ले जाऊंगा बादलों के भी पार,
सपना यह संजोता रहा।

तेरी हर इच्छा पूरी करूं,
मैं संभालूं, मैं संजोऊं तेरे सपनों का घरौंदा।
यह जाने बिना कि तू पंछी है किसी और डाल की
तेरा दाना-पानी नहीं हमारे अंगान का,
तू बादल है उमड़ता-घुमड़ता,
जो बरसेगा किसी और की बगिया में।

घर में शहनाई, मेहमानों का शोर है
तेरी किलकारियां अब खामोश हैं
ना तूने थामी है मेरी ऊंगली अब,
शर्माई, सकुचाई-सी एक मूरत, आंसुओं की बहती धार,
मैं भी हूं एक असहाय पिता
जो केवल संजो सकता है सपने अपनी बिटिया के,
आकार पाते हैं वो सपने दूर कहीं, दूर कहीं….।

मैं माँगती हूँ


मांगने वाला भिखारी और
देने वाला दानवीर है,
तो आजादी, खुशी और
जीने की एक अदद वजह मांगती हूं।

मां कहलाने के लिए भी तो मांगना होता है
अपनी पहचान, जो तुमसे शुरू होकर तुमपर खत्‍म होती है
क्‍योंकि बिना पहचान के कुल्‍टा हूं और पहचान के साथ भी बेनाम,
ऐसी जिंदगी के संग जीने की अदद वजह मांगती हूं।

पास थे कभी


पास थे कभी, दूर न होने के लिए,
एक घर हमने भी बनाया था अपने लिए,
चुनकर लाए थे खुशियों के एक-एक फूल,
रंग भरे थे सपनों की रंगीन कूची से,
आज भी देखती हूँ उस ख्‍वाब की दुनिया के अवशेष
जिसकी रंगहीन दीवारें आज भी कुछ यादों को
सहेजे हुए है किसी बदरंग तस्‍वीर की तरह।

एक निवाला


तुम तो रोज खाते होगे
कई निवाले,
मैं तो कई सदियों से हूँ भूखा,
अभागा, लाचार, लतियाया हुआ।
रोज गुजरता हूँ तुम्‍हारी देहरी से
आस लिए कि कभी तो पड़ेगी तुम्‍हारी भी नजर,
इसी उम्‍मीद से हर रोज आता हूँ,
फिर भी पहचान क्‍या बताऊँ अपनी,
कभी विदर्भ तो कभी कालाहांडी से छपता हूँ,
गुमनामी की चीत्कार लिए,
जो नहीं गूँजती इस हो-हंगामे में।
ना नाम माँगता हूँ,
ना ही कोई मुआवजा,
उन अनगिनत निवालों का हिसाब भी नहीं,
विनती है ! केवल इतनी,
मौत का एक निवाला चैन से लेने दो।

एक शब्द देना चाहती हूं


तेरी खामोशी को मैं एक शब्द देना चाहती हूँ
तुझे हसंता और चहकता देखना चाहती हूँ
ज़ालिम जमाने से तुझे महफूज रखना चाहती हूँ
तेरी खामोशी से मुझे आज भी डर लगता
बस तू अपनी खामोशी को एक शब्द देदे।।