बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

मैं मनुष्य हूँ

पूछो नहीं नाम मेरा
मैं बड़ा अभागा हूं
मैं लक्ष्यहीन पंथहीन
राहों की छाया हूं

मैंने कितने अनर्थ किए
कार्य कितने व्यर्थ किए

स्वार्थ अपने पूर्ण करने को
औरों के हक छीनने को
मनुष्य जन्म लेकर मैं आया हूं
विकट संकट की प्रतिछाया हूं

निद्रा मेरी अब टूटी है
जब जीर्ण शीर्ण संस्कृति बची है

चारों ओर अशांति मची है
देश अब इन भूतों के लिए खंडहर शेष
यह देश का अब चिन्ह विशेष
कुरूप अब एक काया हूं
क्योंकि मैं मनुष्य जन्म लेकर आया हूं।

ज्वलंत विषय

ज्वलंत विषय ढूंढ़ा ताकि उस पर कुछ लिखूं
पाया हर चीज़ ज्वलनशील है

कभी देश तो कभी जनता जलती है
कभी शांति तो कभी नैतिकता धधकती है

सर पर टोपी हाथ में सीधी छड़ी वाला
वह युग बीत गया
तन पर सूट, हाथ में बंदूक लिए
शासक वह युग लूट गया

पाठकों ने कहा
यह तो घिसा पिटा विषय है
इस पर न लिखने को कुछ शेष है

लेकिन उन्हें न यह पता
यह तो अवशेष है
मूल बातें हैं लापता

भव्य समारोह की तैयारी थी
गोरी काली कन्याओं की सभा लगाई थी
आपस में गिट पिट कर
सुंदरी का खिताब किसी ने जीत लिया

सारी जनता बौखलाई सी
उमड़ी भीड़ देने बधाई
क्या पता उसे यह ताज किसलिए दिया गया
संस्कृति अपनी मर चुकी
उसी के शोक पर मनाई जा रही खुशी।

कहीं देश फैशन परस्त, तो कहीं पस्त है
कहीं नेताओं की तानाशाही
तो कहीं जनता की किस्मत अस्त है
इसी उलझन में फंसा
ज्वलंत विषय न ढूंढ़ सका।

बस यूँ ही कभी

मेरी सुबह होती है यूं ही
आंगन बुहारते गोबर से लीपते
रोटी-भात बनाते
कपड़े धोते
गाय को चारा खिलाते
बच्चे को दूध पिलाते
हर दिन दुलत्ती खाते
यूं ही होती है सुबह।

कल जब पड़ोस में देखा
सुबह भी हंसती है उसके आंगन में
नहीं बुहारना-लीपना पड़ता उठकर भिनसरे
नहीं पड़ती उसको दुलत्ती कभी
उसकी कोठी में होती है सुबह यूं ही
मेरी सुबह भी बीत ही जाती है रोज यूं ही।

मेरी बिटिया रानी

मेरी बिटिया रानी गढ़ूंगा तेरे लिए अलग कहानी
सफलता, खुशियां, ममता तेरी झोली में डालूंगा,
पिता हूं तेरे सारे दु:ख हरूंगा।
पकड़कर ऊंगली जब सीखा तूने चलना,
मन पुलकित और हर्षित हुआ ,
तुझे ले जाऊंगा बादलों के भी पार,
सपना यह संजोता रहा।

तेरी हर इच्छा पूरी करूं,
मैं संभालूं, मैं संजोऊं तेरे सपनों का घरौंदा।
यह जाने बिना कि तू पंछी है किसी और डाल की
तेरा दाना-पानी नहीं हमारे अंगान का,
तू बादल है उमड़ता-घुमड़ता,
जो बरसेगा किसी और की बगिया में।

घर में शहनाई, मेहमानों का शोर है
तेरी किलकारियां अब खामोश हैं
ना तूने थामी है मेरी ऊंगली अब,
शर्माई, सकुचाई-सी एक मूरत, आंसुओं की बहती धार,
मैं भी हूं एक असहाय पिता
जो केवल संजो सकता है सपने अपनी बिटिया के,
आकार पाते हैं वो सपने दूर कहीं, दूर कहीं….।

मैं माँगती हूँ


मांगने वाला भिखारी और
देने वाला दानवीर है,
तो आजादी, खुशी और
जीने की एक अदद वजह मांगती हूं।

मां कहलाने के लिए भी तो मांगना होता है
अपनी पहचान, जो तुमसे शुरू होकर तुमपर खत्‍म होती है
क्‍योंकि बिना पहचान के कुल्‍टा हूं और पहचान के साथ भी बेनाम,
ऐसी जिंदगी के संग जीने की अदद वजह मांगती हूं।

पास थे कभी


पास थे कभी, दूर न होने के लिए,
एक घर हमने भी बनाया था अपने लिए,
चुनकर लाए थे खुशियों के एक-एक फूल,
रंग भरे थे सपनों की रंगीन कूची से,
आज भी देखती हूँ उस ख्‍वाब की दुनिया के अवशेष
जिसकी रंगहीन दीवारें आज भी कुछ यादों को
सहेजे हुए है किसी बदरंग तस्‍वीर की तरह।

एक निवाला


तुम तो रोज खाते होगे
कई निवाले,
मैं तो कई सदियों से हूँ भूखा,
अभागा, लाचार, लतियाया हुआ।
रोज गुजरता हूँ तुम्‍हारी देहरी से
आस लिए कि कभी तो पड़ेगी तुम्‍हारी भी नजर,
इसी उम्‍मीद से हर रोज आता हूँ,
फिर भी पहचान क्‍या बताऊँ अपनी,
कभी विदर्भ तो कभी कालाहांडी से छपता हूँ,
गुमनामी की चीत्कार लिए,
जो नहीं गूँजती इस हो-हंगामे में।
ना नाम माँगता हूँ,
ना ही कोई मुआवजा,
उन अनगिनत निवालों का हिसाब भी नहीं,
विनती है ! केवल इतनी,
मौत का एक निवाला चैन से लेने दो।

एक शब्द देना चाहती हूं


तेरी खामोशी को मैं एक शब्द देना चाहती हूँ
तुझे हसंता और चहकता देखना चाहती हूँ
ज़ालिम जमाने से तुझे महफूज रखना चाहती हूँ
तेरी खामोशी से मुझे आज भी डर लगता
बस तू अपनी खामोशी को एक शब्द देदे।।