सोमवार, 14 मार्च 2011

शहर


चारों ओर फैला घोर उजाला
सिमट जाता, जिससे गहन अंधियारा।

सारा परिवेश कृत्रिम नजर आता है,
जिसमें व्यक्ति स्वयं मशीन बन जाता है।

काली सड़कों पर दौड़ती अगिनत मोटरें,
जैसे मानवता पर पड़ गई हों सिलवटें।

दिशाहीन होकर दौड़ते हैं, अर्थहीन प्रतियोगिताओं में,
प्रथम और द्वितीय भी मान लेते हैं, स्वयं को दौड़ में।

मुझे डर है ऐसे अजनबी माहौल से,
सिहर उठता है रोम, भविष्य के विनाश से।

नहीं चाहिए ऐसा विकास,
जो भूला दे हमारा मनोरम इतिहास।

दुःख की आत्मकथा

मन की पीड़ा प्रकट करना,
हे! मानव ये ठीक नहीं,
अपने दुःखों की खुली किताब रखना,
हे! मानव ये ठीक नहीं।

इसकी कहानी बड़ी पुरानी
जिसकी परिभाषा न दे पाये ज्ञानी,
कोई कहता उमड़ता बादल
कोई कहता लहरें तूफानी।

समिधा

पुलकित हो उठा है, मन इसके आगमन से
किलकारियां गूंज उठी हैं, हर दिशाओं में।

पदार्पण हुआ है, हृदय बगिया में कली का
व्याकुल है मन, नन्हे स्पर्श को ममता का।

भावभंगिमा बदल गई है मुखमंडल की
अधरों पर मुस्कान प्रस्फुटित हुई सबों की।

बदरंग थी जीवन की तस्वीर कल तक
भर दिया रंग जिसमें तुमने आकर।

सदा रहे तुम्हारा जीवन बुलंदियों पर
रोड़े न अटकाए कोई राहों पर।

बिखेरो खुशियां रोशनी बनकर
सुगंधित रहो सदा समिधा बनकर।

बचपन तुम्हारे साथ

बचपन की तुम वो मिठास,
जिसे चखकर परितृप्त है मन आज,
साथ तुम्हारे चलने को
आतुर है, पवन की रफ्तार।

पग तुम्हारे चलते रहें, ऊंची चोटियों के भी पार,
साथ साथ गूंजती रहे खुशियों की मल्हार
नभी से भी ऊपर रहें,
सोपान विकास की और छू जाएं कदम मंजिल को।

वक्त

* ‘वक्त’ से आगे निकलने की यूं
जल्दबाजी न करो, ऐसा न हो
जिन्दगी मौत से बदतर हो जाए।।
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* ‘वक्त’ के चौराहे पर दिए कितने ही इम्तिहान,
इन्हीं इम्तिहानों ने आज जीना सिखा दिया।।
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* ‘वक्त’ को इतना धोखा दिया,
कि जिन्दगी धोखे में ही गुजर गई।।
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* ‘वक्त’ ने इशारों से बहुत समझाया,
पर मैं ही मूर्ख था एक भी इशारा समझ न पाया।
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* ‘वक्त’ की मार ने पहलवां यूं बनाया,
कि हर तकलीफ अब आसां हो गई।।
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* ‘वक्त’ की तपिश ने सोने को भी गलाया,
हम तो बड़े मामूली हैं जाने हश्र क्या होगा।।
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* ‘वक्त’ होगा कभी तो मेहरबां मुझपर
यह सोचकर बस जिए जा रहे हैं।।