बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

बस यूँ ही कभी

मेरी सुबह होती है यूं ही
आंगन बुहारते गोबर से लीपते
रोटी-भात बनाते
कपड़े धोते
गाय को चारा खिलाते
बच्चे को दूध पिलाते
हर दिन दुलत्ती खाते
यूं ही होती है सुबह।

कल जब पड़ोस में देखा
सुबह भी हंसती है उसके आंगन में
नहीं बुहारना-लीपना पड़ता उठकर भिनसरे
नहीं पड़ती उसको दुलत्ती कभी
उसकी कोठी में होती है सुबह यूं ही
मेरी सुबह भी बीत ही जाती है रोज यूं ही।

1 टिप्पणी:

  1. तेरी सुबह हर रोज हंसती रहे
    तुझे चाहने वाले तुझसे यूं ही मिलते रहें
    दिन निकले तेरा ही चेहरा देखकर
    हम भी खुश हो लेंगे
    बस यूं ही कभी...

    सादर
    अंकुर

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