मंगलवार, 24 मई 2011

दीवारें ही दीवारें

गूगल खोज से साभार
सदियों सा फासला कुछ पलों में यूं मिटा
न तुम मुझसे जुदा थे और न मैं तुमसे।
कई बार दरकी थी विश्वास की दीवारें
जिसे विश्वास से ही संभाला
कभी तुमने तो कभी मैंने।
मुफलिसी के वो दिन भी क्या खूब थे
जब प्यार की रोटियों से पेट भर लिया करते थे
कभी तुम तो कभी मैं।
अब न तो वो मुफलिसी का बहाना है
न वह विश्वास ही
हैं केवल दीवारें ही दीवारें
जिसे न तुम पार कर सकते हो न मैं।

1 टिप्पणी:

  1. झूठे अहम् की लाजवाब प्रस्तुति - गागर में सागर
    बहुत खूब अति सुंदर - बधाई और आशीष

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