चारों ओर फैला घोर उजाला
सिमट जाता, जिससे गहन अंधियारा।
सारा परिवेश कृत्रिम नजर आता है,
जिसमें व्यक्ति स्वयं मशीन बन जाता है।
काली सड़कों पर दौड़ती अगिनत मोटरें,
जैसे मानवता पर पड़ गई हों सिलवटें।
दिशाहीन होकर दौड़ते हैं, अर्थहीन प्रतियोगिताओं में,
प्रथम और द्वितीय भी मान लेते हैं, स्वयं को दौड़ में।
मुझे डर है ऐसे अजनबी माहौल से,
सिहर उठता है रोम, भविष्य के विनाश से।
नहीं चाहिए ऐसा विकास,
जो भूला दे हमारा मनोरम इतिहास।
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